Tuesday, September 15, 2015

मुकद्दर

तुम बनके आईना जो चारसूं बिखर गए
चेहरा संवारने से मुकद्दर संवर गए

सुन पाये तुम्हें जब भी अपनी धड़कनों में हम
बेशी-कमी की कशमकश से बेअसर गए

हर बार आदतन ही तुमसे कर दिए वादे
और नज़र फेरते ही हर दफा मुकर गए

हम दूसरे शहर में जा के पूछ रहे हैं
जो घर हमारे जाते थे रस्ते किधर गए

मग़रूर हो गए जो तुमने दे दी नेकियां
हम यूं मरे, हकीम को बदनाम कर गए

शोहरत वसूलना भी नहीं भूलते कभी
यूँही कभी तुम्हारा अमल हम जो कर गए

हो गए हैं तमाम मंज़िलों को हम क़ुबूल
उंगली को थाम जब कभी तुम्हारे घर गए