Wednesday, October 28, 2015

दीदार

और कैसे अहद-ए-उलफत को निभाना चाहिए
रोज़-ओ-शब दीदार पीकर मुस्कुराना चाहिए

कहने को हम हैं मुरीद और आप हैं मुर्शद मगर
अपने पीछे ही हमें सारा ज़माना चाहिए

आना जाना और बदलना लाज़मी हर शय को है
आप हैं तो क्यों फिर उनसे दिल लगाना चाहिए

सामने रखे हैं मेरे, दोस्ती भी रंज भी
देख ली दीवार, पुल भी आज़माना चाहिए

आपके कदमों से लिपटे ज़र्रे जैसे कह रहे
दर-ब-दर भटके हैं अब पक्का ठिकाना चाहिए

हाथ न ख़ंजर किसी का क़त्ल करते हैं कभी
बस ज़हन से सोच का ख़ंजर छुड़ाना चाहिए

मुफ्त की शोहरत से न मग़रूर हो जाएँ कहीं
आप की महफ़िल में आकर मुंह छुपाना चाहिए

हर किसी को अपने ऊपर की फ़लक़ ऊंची लगी
दूसरों को कम समझने का बहाना चाहिए

कर दो गुस्ताख़ी को माफ़ और अर्ज़ को कर लो "क़ुबूल"
फूल बनकर ये चमन हमको सजाना चाहिए


Tuesday, October 27, 2015

बेवजह

शर्मसारी से निगाहों को झुकाया होगा
मेरा शुबा जब इनके रूबरू आया होगा 

प्यार का एक लफ्ज़ भी असर दिखाता है
कहीं दीवार में दरार तो लाया होगा

सलीका उसका मुझसे जुदा है तो बात क्या है
उसे वही तो उसके घर ने सिखाया होगा 

सवाली दिल कई सवाल लिए फिरता है 
हज़ार बार जिन्हें लिख के मिटाया होगा 

कभी तलवार रोशनी को काट पायी नहीं 
अग़रचे खून चराग़ों का बहाया होगा

तौर सजदे के तो जमात सिखा देती है 
असर दुआ में अक़ीदत से ही आया होगा 

चला रहा है कौन कश्तियाँ समंदर में
हवा ने रूख बदल के याद दिलाया होगा

पास आ कर भी भटकना इसी को कहते हैं 
"कि ख़ुदा को भी किसी ने तो बनाया होगा"? 

उम्र भर आज़मा के भी क़ुबूल कर न सका
कोई मुझसा भी इस जहां में ख़ुदाया होगा