Wednesday, August 27, 2014

आईना

ख़त्म दिल से बुरे अच्छे की हर पहचान हो  जाए
ये दिल वो फिर से पहले की तरह नादान हो जाए

तुझे कश्ती में क्यूँ  ढूँढूँ, अगर मझधार भी तू है
ये दोनों एक ही हैं, मुझको ये पहचान हो जाए

सभी का ही भला मैं मांगता तो हूँ मगर तब तक
किसी के हाथ न जब तक मेरा नुकसान हो जाए

खुदा ने हुस्न जो बख्शा, मुबारक़ है, मगर तब ही
नज़र आने का दिल से ख़त्म जब अरमान हो जाए

कहाँ मुमकिन है कि हर चाह दिल की यूं ही मिट जाए
शहनशाह वो बने जिस पर तेरा एहसान हो जाए

समझ आ जाए मुझको कि ये तय होगा ठहरने से
तो मैं से तू का ये मुश्किल सफ़र आसान हो जाए

बना रखा है कबसे अपने लफ्ज़ों को नक़ाब अपना
मेरा आईना हों ग़ज़लें, मेरी दास्तान हो जाए

तेरे दरबार में खुद ही "क़ुबूल" अपने गुनाह कर ले
चलें पाक अश्क़ और "रोशन" मेरा ईमान हो जाए