Thursday, May 01, 2008

विसाल

आंखों में नींद बची है कम, पर रात अभी भी बाकी है,
गीले सूखे अश्कों के संग, हर ख्वाब अभी भी बाकी है

ये आते जाते पेड़ भी अब, थोड़े से रुसवा लगते हैं,
पर इन क़दमों का रुकने से, इनकार अभी भी बाकी है

ये पागल दिल मेरा यूँ तो, कहता है रात मुख्तसर है,
और ख़ुद ही खुश होता है कि, माहताब अभी भी बाकी है

खाली राहों में कुछ साये, अब भी कहते से मिलते हैं,
कि इसी ज़िंदगी में अपना, कुछ साथ अभी भी बाकी है

खिड़की से अंधियारी सूनी, गलियों का मंज़र दिखता है,
इस दिल में नूर के क़दमों की आवाज़ अभी भी बाकी है

मेरी राहों के जैसा ही, ये शहर बियाबां लगता है,
बस उस दर पे इक जलता हुआ, चिराग अभी भी बाकी है

शब के जाने की आहट है, और शोर धडकनों का भी है,
साया सा उनका दिखता है, दीदार अभी भी बाकी है ।


मुख्तसर - Short lived, माहताब - moon, नूर - light, बियाबां - (dark, lonely) forest, सोया - doorstep, शब - night

विसाल - Union

Saturday, April 05, 2008

हक

One year later, again a treat at the same place, I again write something on friendship, something for my friends. Friendship for me is defined by the title of the poem. There are a million more thoughts in mind, and hopefully they will find escape in the next one. Here's me hoping. :)

हक

थोड़ा थोड़ा तेरा प्यार, अब भी सपने में मिलता है,
बीते लम्हों का गुलज़ार, अब भी सपने में मिलता है

राहें जुदा जुदा हैं बेशक, चाहत भी इकसार नही, पर
तेरे मेरे दिल का तार, अब भी सपने में मिलता है

धूप और छाँव अलग है अपनी, और बिछड़े से किस्से हैं, पर
इक सी रात सुकूं इकसार, अब भी सपने में मिलता है

उम्मीदों ख़्वाबों के जुगनू, मुझको बेशक भरमाते हैं,
हर तफरीह को तू तैयार, अब भी सपने में मिलता है

शायद वक्त हुआ है बिछड़े, और तुझको मैं याद नही हूँ,
मुझको तो तेरा दीदार, अब भी सपने में मिलता है

सबसे पक्की यारी शायद ऐसी ही जिद्दी होती है,
नहीं मिलूंगा कहकर यार, अब भी सपने में मिलता है

तेरी खुशियों की शहनाई, अब भी ख्वाब सजाती मेरे,
तुझपर मेरा हक वो यार, अब भी सपने में मिलता है ।

Tuesday, March 04, 2008

तलाश

किताबों में अपनी ग़ज़ल ढूँढता था,
आवाजों में अपनी असल ढूँढता था

वो खुश था या गमगीं, पता चला कुछ,
बस एहसास का एक पल ढूँढता था

कभी इसकी महफिल, कभी उसकी महफिल,
हस्ती का सबब आजकल ढूँढता था

तस्वीर कोई, कोई थी पहचां,
जो बदले कभी , शक्ल ढूँढता था

क्या मिलती उसे कुछ मदद दानिशों से,
जो ख़ुद जैसा एक पागल ढूँढता था

मुलाक़ात का पल भी कैसा अजब था,
महल में खड़ा वो महल ढूँढता था

"कुबूल" उसने करके ही पाया सुकूँ वो,
जिसे वो फज़ल-दर-फज़ल ढूँढता था





हस्ती - existence, सबब - reason / cause, दानिश - wisdom, फज़ल - attribute / quality (good)

Friday, February 01, 2008

मुलाक़ात

दिखने लगा छुपा हुआ वो प्यार भी हल्का सा,
आंखो में छलक आया है इक़रार भी हल्का सा

बस ख़त्म हो चला था, जितना था सब्र मन में,
बहुत हुआ लगा ये इंतज़ार भी हल्का सा

तेरे नूर का यही रंग, तेरे अक्स को तलब था,
चढ़ने को रूह पर मेरी, तैयार भी हल्का सा

सोचा था कि इतना बेहतरीन होगा ये पल,
खुद पर से हट रह है इख्तियार भी हल्का सा

ख़ुशी कहूं, या क्या कहूं, एहसास को मैं अपने,
लगता है मेरे ख़्वाबों के ये पार भी हल्का सा

पर ये तो बस आगाज़ ही हुआ है उड़ने का,
होने का ख़त्म, हो इंतज़ार भी हल्का सा

हर रोज़ नए आसमां मिलें एहसासों को,
बुझ गयी प्यास, लगे इक बार भी हल्का सा

"कुबूल" हो दुआ मेरी बस एक मेरे मौला,
मांगू नहीं, तुझे जो नागवार भी हल्का सा