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Monday, June 24, 2013

अर्ज़


जब से पहचान हुई तुमसे, तुम कुछ ही बार नज़र आए
पहचान रही न काम आयी, तुम जब जब यार नज़र आए

जब सामने आए हो तो इन नज़रों के सामने ही रहना
वरना क्या ये भी मुमकिन है, मैं चाहूँ और तू दिख जाये?

तू है दरिया-ए-मुहब्बत, तेरा क़तरा-क़तरा मुहब्बत है
पर कोई प्यासा दिखता है, कोई तुझमें बहता दिख जाये

कहते हैं कि हर जंग हुआ करती है अमन की ही खातिर
इसलिए तलाशता हुआ सुकूँ, दिल खुद से ही  लड़ता जाये

कोई ज़ोर नहीं पर अर्ज़ मेरी मैं डरते डरते कहता हूँ
हर सही गलत की उलझन से इस दिल की रिहाई हो जाए

बस वही तमन्नाएँ देना, जो तूने करनी हों "कुबूल"
तेरा न मिलना तय है तो तेरी ख़्वाहिश भी न आए

Monday, February 13, 2012

इकबाल

हर एक ज़र्रे को रोशन तेरा जमाल करे
किसे ख़बर है कहाँ पर तू क्या कमाल करे


तू हर जगह है मगर फिर भी छुपा रहता है
बशर है खाना-नशीं ख्वाहिश-ए-विसाल करे

मैं ये हर बार देख के भी भूल जाता हूँ
तू वही करता है सभी को जो खुशहाल करे

मार देती है मेरी सोच मुझे हर दफा और
मुझे हर बार जिंदा तेरा इक ख्याल करे

तेरा फ़ज़ल तू नहीं मांगता हिसाब वर्ना
मैं बिक ही जाऊँगा जो तू बस इक सवाल करे

बड़ी ख़ुशी से तूने किया है "कुबूल" मुझे
और एक मैं जो अब भी कोशिश-ए-इकबाल करे


 जमाल- aura, खाना-नशीं - trapped / in darkness/ misguided, ख्वाहिश-ए-विसाल - desire to meet, फ़ज़ल- grace, इकबाल- acceptance

Thursday, January 05, 2012

ख्वाहिश के टुकड़े

कहूं कैसे हुआ मुझको तेरे पास आ के क्या हासिल,
मेरा हर पल है तेरे रूबरू, बतला के क्या हासिल

मेरे मुग़ालते तेरे ही खेलों का नतीजा हैं,
पशेमाँ छोड़ अव्वल, फिर करम फरमा के क्या हासिल

मेरी ख्वाहिश के टुकड़े मुझको खींचें चारसूँ होकर,
तेरी मर्ज़ी है किस जानिब, बता दे तू, कि क्या हासिल

तू मुझसे प्यार करता है, मैं तुझसे प्यार करता हूँ,
तो फिर यूं इम्तिहानों में मुझे बैठा के क्या हासिल

मुझे ऐतबार न आये कि तू अच्छा ही करता है,
तो फिर ये क्यूँ हुआ, वो क्यूँ हुआ, समझा के क्या हासिल

ख़ुशी हो बासबब या बेसबब, दोनों नहीं टिकती,
खुदाई या खुदा को बेवफा ठहरा के क्या हासिल

सबूतों का रहा मोहताज, और बोला यकीं भी है
तो तुझको जानकर, करके "कुबूल", और पा के क्या हासिल


मुग़ालते- Confusions, पशेमाँ- Ashamed, अव्वल- Firstly , चारसूँ - Four directions, जानिब - Direction


 

Thursday, August 11, 2011

सोच

ये दिल क्यूँ सोच में दौड़े यहाँ वहाँ के लिए
मेरे साहिब की सोच सारे ही जहां के लिए

अगर ये गुल खिलें इक दूसरे के खिलने से
और एहतियाज क्या हसीन गुलिस्ताँ के लिए

तेरे ख्यालों में सबसे अज़ीम होगा ये
हर इंसान यूँही सोचे हर इन्सां के लिए
 
मेरे कदमों को हो ख्याल फ़क़त चलने का
सोच राहों की छोड़नी है रहनुमां के लिए

"कुबूल" हो सके मुझे हद-ए-मीनार-ए-मसीद 
 न आरज़ू हो किसी और आसमां के लिए

एहतियाज- requirement, अज़ीम- highest, हद-ए-मीनार-ए-मसीद - Zenith of the minaret in the mosque


Tuesday, July 07, 2009

ibaadat

Some lines from a great poem by Bhupendra Bekal ji, which have made an impression on my heart, though I am miles away from following them.

बेरंग की रंगीन मस्ती में खोकर
हवस-भय-खुशामद से निर्लेप होकर

ख्यालों में मुर्शद के एहसां पिरोकर
इबादत है झुक जाना मशकूर होकर

........

'बेकल' इबादत में शर्तें हैं वर्जित
इबादत है कर देना खुद को समर्पित

(Worship is losing oneself in the colorful trance of this colorless Almighty; going beyond lust, greed, fear and flattery; Always keeping in mind the grace of God; worship is bowing to Him with gratitude. 
"Bekal", worship is not on conditions, worship is to surrender oneself fully.)


I pray to Almighty that I may be able to follow these in my life.

Wednesday, November 01, 2006

Ibaadat


Hai aisa nahi ki ye sunta nahi hai,
kabhi kabhi haan par, ye kehta "nahi" hai

zarurat hamari, isey har pata hai,
jo maange agar kuchh, tasalli dili hai

hai lagta hamein, intezar kuchh lamba,
par timing to iski hi sabse sahi hai

jo sochein, hamein chhod sab hai ye soche,
tab bhi soch iski hi sabse badi hai

jo poochhein, ibaadat, karein hum ye kab tak,
ibaadat to har saans se hi judi hai

sada pyaar karna, hai ye hi ibaadat,
namaazein to bas guftagu ki ghadi hain