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Saturday, April 05, 2008

हक

One year later, again a treat at the same place, I again write something on friendship, something for my friends. Friendship for me is defined by the title of the poem. There are a million more thoughts in mind, and hopefully they will find escape in the next one. Here's me hoping. :)

हक

थोड़ा थोड़ा तेरा प्यार, अब भी सपने में मिलता है,
बीते लम्हों का गुलज़ार, अब भी सपने में मिलता है

राहें जुदा जुदा हैं बेशक, चाहत भी इकसार नही, पर
तेरे मेरे दिल का तार, अब भी सपने में मिलता है

धूप और छाँव अलग है अपनी, और बिछड़े से किस्से हैं, पर
इक सी रात सुकूं इकसार, अब भी सपने में मिलता है

उम्मीदों ख़्वाबों के जुगनू, मुझको बेशक भरमाते हैं,
हर तफरीह को तू तैयार, अब भी सपने में मिलता है

शायद वक्त हुआ है बिछड़े, और तुझको मैं याद नही हूँ,
मुझको तो तेरा दीदार, अब भी सपने में मिलता है

सबसे पक्की यारी शायद ऐसी ही जिद्दी होती है,
नहीं मिलूंगा कहकर यार, अब भी सपने में मिलता है

तेरी खुशियों की शहनाई, अब भी ख्वाब सजाती मेरे,
तुझपर मेरा हक वो यार, अब भी सपने में मिलता है ।

Thursday, April 19, 2007

सब रंग एक संग

This poem is for my wing-mates, we are like the colours in the colour-box, in which all different colours reside, and come together to create beauty. This poem includes some incidents that got imprinted in my memory. Love you unconditionally and hamesha, my bhailog !


सब रंग एक संग


हम साथ हैं तो ज़िंदगी की हर ख़ुशी मिली
यारों मेरे सौगात मुझको ये हसीं मिली

साहिल की रेत में जो था वो ढूँढता सीपी
इक रात उसको आसमान की परी मिली

रोशन मीनारें जिनको था बस दूर से देखा
उनकी भी इस नाचीज़ को शागिर्दगी मिली

लहरों में हाथ थाम कर खडे हुए थे जब
सुबह मुझे वो जिन्दगी की बेहतरीं मिली

मुश्किल था हाँ बेशक जो वक़्त दर्द में गया
रफ़्तार उसको पर तुम्हारे साथ से मिली

दिल को जो राह दिल से हो तो फासलों से क्या
बस कहना मुझे तेरी चिट्ठी नही मिली