Friday, December 06, 2013

सिफ़र

मेरी नज़र पे नज़र-ए-मेहर बनाये रखना
अपने एहसान तसव्वुर में बसाये रखना

मिलेगा या कि नहीं इस से बेसबब होकर 
तुझी से मांगू सिलसिला ये बनाये रखना

हमें बहुत अज़ीज़ है ये दोस्ती तुझसे
तू ही निभा रहा है तू ही निभाये रखना

तू मुस्कुराया था मेरी ही इक शरारत पे 
मेरे लिए मुग़ालता ये बनाये रखना

तेरे सिवा न कोई देता है न लेता है 
सर-ए-बाज़ार भी सिफ़र पे टिकाये रखना

अकल  को दी है जो तासीर दौड़ने की तो
अब इसका रुख भी अपनी सिम्त बनाये रखना 

न गर्ज़ से न फ़र्ज़ से तेरी इबादत हो
मुझे बेसाख्ता सजदों में लगाए रखना

नहीं मुमकिन तेरी रहमत को बयां कर पाना
तू फिर भी ऐसी कोशिशों में लगाए रखना

"क़ुबूल" तो नहीं कर पाया हूँ तुझे अब तक 
तू अपनी महफिलों में फिर भी बिठाये रखना 

फ़ज़ल  - grace, सिफ़र - zero, सिम्त - towards/near, मुग़ालता - illusion


Monday, June 24, 2013

अर्ज़


जब से पहचान हुई तुमसे, तुम कुछ ही बार नज़र आए
पहचान रही न काम आयी, तुम जब जब यार नज़र आए

जब सामने आए हो तो इन नज़रों के सामने ही रहना
वरना क्या ये भी मुमकिन है, मैं चाहूँ और तू दिख जाये?

तू है दरिया-ए-मुहब्बत, तेरा क़तरा-क़तरा मुहब्बत है
पर कोई प्यासा दिखता है, कोई तुझमें बहता दिख जाये

कहते हैं कि हर जंग हुआ करती है अमन की ही खातिर
इसलिए तलाशता हुआ सुकूँ, दिल खुद से ही  लड़ता जाये

कोई ज़ोर नहीं पर अर्ज़ मेरी मैं डरते डरते कहता हूँ
हर सही गलत की उलझन से इस दिल की रिहाई हो जाए

बस वही तमन्नाएँ देना, जो तूने करनी हों "कुबूल"
तेरा न मिलना तय है तो तेरी ख़्वाहिश भी न आए