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Monday, June 24, 2013

अर्ज़


जब से पहचान हुई तुमसे, तुम कुछ ही बार नज़र आए
पहचान रही न काम आयी, तुम जब जब यार नज़र आए

जब सामने आए हो तो इन नज़रों के सामने ही रहना
वरना क्या ये भी मुमकिन है, मैं चाहूँ और तू दिख जाये?

तू है दरिया-ए-मुहब्बत, तेरा क़तरा-क़तरा मुहब्बत है
पर कोई प्यासा दिखता है, कोई तुझमें बहता दिख जाये

कहते हैं कि हर जंग हुआ करती है अमन की ही खातिर
इसलिए तलाशता हुआ सुकूँ, दिल खुद से ही  लड़ता जाये

कोई ज़ोर नहीं पर अर्ज़ मेरी मैं डरते डरते कहता हूँ
हर सही गलत की उलझन से इस दिल की रिहाई हो जाए

बस वही तमन्नाएँ देना, जो तूने करनी हों "कुबूल"
तेरा न मिलना तय है तो तेरी ख़्वाहिश भी न आए

Friday, February 01, 2008

मुलाक़ात

दिखने लगा छुपा हुआ वो प्यार भी हल्का सा,
आंखो में छलक आया है इक़रार भी हल्का सा

बस ख़त्म हो चला था, जितना था सब्र मन में,
बहुत हुआ लगा ये इंतज़ार भी हल्का सा

तेरे नूर का यही रंग, तेरे अक्स को तलब था,
चढ़ने को रूह पर मेरी, तैयार भी हल्का सा

सोचा था कि इतना बेहतरीन होगा ये पल,
खुद पर से हट रह है इख्तियार भी हल्का सा

ख़ुशी कहूं, या क्या कहूं, एहसास को मैं अपने,
लगता है मेरे ख़्वाबों के ये पार भी हल्का सा

पर ये तो बस आगाज़ ही हुआ है उड़ने का,
होने का ख़त्म, हो इंतज़ार भी हल्का सा

हर रोज़ नए आसमां मिलें एहसासों को,
बुझ गयी प्यास, लगे इक बार भी हल्का सा

"कुबूल" हो दुआ मेरी बस एक मेरे मौला,
मांगू नहीं, तुझे जो नागवार भी हल्का सा