Thursday, May 06, 2021

भूत

राह को देखता हूँ राहबर गया जबसे 
मुझे मंज़िल पे छोड़कर सफर गया जबसे 

जो बेसुरा था, पर हमेशा गुनगुनाता था 
बड़ा खामोश हुआ है, शहर गया जबसे 

वो जो इक भूत  मेरे सर पे चढ़ा रहता था 
मेरी भी सांस है बोझल, वो मर गया जबसे 

मैं खड़ा सोच रहा हूँ कि क्या ये वो ही था 
वो मुझसे आँख चुराकर गुज़र गया जबसे 

मैं अपने आप को पहचान नहीं पाता हूँ 
मेरी तस्वीर में वो रंग भर गया जबसे 

वो नहीं आया है वापस, हर एक चिट्ठी में 
बात आने की लिखी है, मगर गया जबसे 

वो परिंदा क़फ़स के इंतज़ार में है अब 
रात तूफां में नशेमन बिखर गया जबसे 

आईना ठीक है तो अक्स के टुकड़े क्यों हैं 
मेरा ही हुस्न ये सवाल कर गया मुझसे 

मेरे ही जिस्म को मेरा सुकूं क़ुबूल नहीं 
और रिसता है लहू, ज़ख़्म भर गया जबसे 


Sunday, February 11, 2018

रोशन-मीनार

हर लम्हा तुम्हे रूबरू रखने की चाह में
इज़हार बंदगी का है वादा-निबाह में

रहबर का फ़क़त साथ छूट जाने के सिवा
और दूसरी मुश्किल कोई नहीं है राह में

करते नहीं वो सुबह के आने का इंतज़ार
रोशन-मीनार जलते हैं शब-ए-स्याह में

हर रंग में तुम्हारा फज़ल आ रहा नज़र
मिलती है तुम्हारी निगाह हर निगाह में

पहचान जिन्हें हो गयी महफ़िल के अदब की
पढ़ते हैं छिपा हुक्म तुम्हारी सलाह में

उनको ही खुदा की रज़ा हो आई है क़ुबूल
दिख जाती है जिन्हें ये और के गुनाह में

Thursday, March 09, 2017

सादगी

कुछ ख़ता करते मेरे नादान से अल्फ़ाज़ हैं
मांगते इनसे हैं जो हर पल मेरे हमराज़ हैं

है वही मुस्कान नूरानी वही नज़र-ए-करम
शक्ल बदली, रहमतों के पर वही अंदाज़ हैं

इनसे चलकर, इन तलक ही, पंहुचना है ज़िन्दगी
ये ही हैं अंजाम-ए-उल्फत, और यही आग़ाज़ हैं

राह अमन-ओ-चैन की तैयार करने के लिए
ज़र्रा बनने को भी राज़ी देख ज़र्रा-नवाज़ हैं

इनके सदके चल रहा है साथ मेरे अब ख़ुदा
ये ही मेरी ख़ुशदिली -ख़ुशकिस्मती का राज़ हैं

आसमां ऊँचे हैं, उनके शौक़ पर कुछ और हैं
इक फ़क़त शम्मा तलाक परवानों की परवाज़ हैं

हमको जिनका हर क़दम शतरंज की इक चाल है
सादगी सिखला रही मासूम सी आवाज़ हैं

जिसकी जैसी भी हो कोशिश, इनको होती है क़ुबूल
वर्ना कब तारीफ़ इनकी, कर सके अल्फ़ाज़ हैं




Tuesday, April 19, 2016

फ़लसफ़ा

सवाल बुझ गए, सुकून जगमगाया है
तेरे इशारों को जब फ़लसफ़ा बनाया है

कौन कहता है कि हमको खुदा से इश्क़ नहीं
खुदा के करम पे हर बार हक़ जताया है

तू आज़माये नहीं होती है पल पल ये दुआ 
हमीं ने फिर तुझे पल पल में आज़माया है 

देखता है कोई, ये ख़ौफ़ अब नहीं रहता 
जब से नाज़िर नज़ारा बन के साथ आया है 

किसी पे उंगली उठाऊं तो यूं लगे मुझको 
हाथ तेरे ही गिरहबान को लगाया है 

काश उस पल में सारी ज़िन्दगी गुज़र बैठे 
वो पल कि जिसमें तू भरपूर मुस्कुराया है 

नसीब तब हुई है शोहरतें, किरदार में जब 
शौक़ झुकने का हारने का हुनर आया है 

वजूद को तेरे क़दमों में जब झुका बैठे 
वजूद मिलने का तब राज़ समझ आया है 

तेरे एहसास में जहां को मुकम्मल देखा  
हर एक शय है वैसी जिसको जो बनाया है

क़ुबूल दिल को है ज़ुबान फ़क़त सिक्कों की  
 पूछ बैठे तो क्या बताएं कि क्या पाया है 





Wednesday, October 28, 2015

दीदार

और कैसे अहद-ए-उलफत को निभाना चाहिए
रोज़-ओ-शब दीदार पीकर मुस्कुराना चाहिए

कहने को हम हैं मुरीद और आप हैं मुर्शद मगर
अपने पीछे ही हमें सारा ज़माना चाहिए

आना जाना और बदलना लाज़मी हर शय को है
आप हैं तो क्यों फिर उनसे दिल लगाना चाहिए

सामने रखे हैं मेरे, दोस्ती भी रंज भी
देख ली दीवार, पुल भी आज़माना चाहिए

आपके कदमों से लिपटे ज़र्रे जैसे कह रहे
दर-ब-दर भटके हैं अब पक्का ठिकाना चाहिए

हाथ न ख़ंजर किसी का क़त्ल करते हैं कभी
बस ज़हन से सोच का ख़ंजर छुड़ाना चाहिए

मुफ्त की शोहरत से न मग़रूर हो जाएँ कहीं
आप की महफ़िल में आकर मुंह छुपाना चाहिए

हर किसी को अपने ऊपर की फ़लक़ ऊंची लगी
दूसरों को कम समझने का बहाना चाहिए

कर दो गुस्ताख़ी को माफ़ और अर्ज़ को कर लो "क़ुबूल"
फूल बनकर ये चमन हमको सजाना चाहिए


Tuesday, October 27, 2015

बेवजह

शर्मसारी से निगाहों को झुकाया होगा
मेरा शुबा जब इनके रूबरू आया होगा 

प्यार का एक लफ्ज़ भी असर दिखाता है
कहीं दीवार में दरार तो लाया होगा

सलीका उसका मुझसे जुदा है तो बात क्या है
उसे वही तो उसके घर ने सिखाया होगा 

सवाली दिल कई सवाल लिए फिरता है 
हज़ार बार जिन्हें लिख के मिटाया होगा 

कभी तलवार रोशनी को काट पायी नहीं 
अग़रचे खून चराग़ों का बहाया होगा

तौर सजदे के तो जमात सिखा देती है 
असर दुआ में अक़ीदत से ही आया होगा 

चला रहा है कौन कश्तियाँ समंदर में
हवा ने रूख बदल के याद दिलाया होगा

पास आ कर भी भटकना इसी को कहते हैं 
"कि ख़ुदा को भी किसी ने तो बनाया होगा"? 

उम्र भर आज़मा के भी क़ुबूल कर न सका
कोई मुझसा भी इस जहां में ख़ुदाया होगा 


Tuesday, September 15, 2015

मुकद्दर

तुम बनके आईना जो चारसूं बिखर गए
चेहरा संवारने से मुकद्दर संवर गए

सुन पाये तुम्हें जब भी अपनी धड़कनों में हम
बेशी-कमी की कशमकश से बेअसर गए

हर बार आदतन ही तुमसे कर दिए वादे
और नज़र फेरते ही हर दफा मुकर गए

हम दूसरे शहर में जा के पूछ रहे हैं
जो घर हमारे जाते थे रस्ते किधर गए

मग़रूर हो गए जो तुमने दे दी नेकियां
हम यूं मरे, हकीम को बदनाम कर गए

शोहरत वसूलना भी नहीं भूलते कभी
यूँही कभी तुम्हारा अमल हम जो कर गए

हो गए हैं तमाम मंज़िलों को हम क़ुबूल
उंगली को थाम जब कभी तुम्हारे घर गए



Sunday, October 12, 2014

रहम

दिलों के शोर थम गए जो ज़िक्र-ए-यार हुआ
ज़मीर फिर हुए रोशन जो ये दीदार हुआ

ज़रा ज़रा है तेरी दीद भी मय के जैसी 
जिसे मिली ये वो फिर और तलबगार हुआ 

तेरे एहसास का इक ये भी असर है दिल पर 
हुई खता तो ये पल में ही शर्मसार हुआ 

बना हुआ था दिल पे बोझ तेरे आने तक 
मेरे गुनाहों का पहाड़ फिर ग़ुबार हुआ 

हुई ख़ुशी तेरे कदमों में अब तो आएगा 
दिल-ए-नादान थक के जब दिल-ए-लाचार हुआ 

ज़हन की देखिये फ़ितरत ये दिए जाने की
किसी से राय भी मिली तो नागवार हुआ 

"क़ुबूल" कर न सका तुझको लाख चाह के भी 
तेरा रहम, तेरे रहम पर ऐतबार हुआ 

Monday, September 15, 2014

निशाँ

तमाम उम्र साथ ही रहे ज़ख्मों के निशाँ
राहतें बक्श के मिट गए मरहमों के निशाँ

मसल रहा था  जब इक फूल अपने पाँव तले
दिखे थे खार पर भी आपके लबों के निशाँ

बताएं क्या कि क्या मिला निगाह मिलने से
देख रुख़्सार पर हैं मीठे पानियों के निशाँ

हज़ार दफा सुना आपका वो एक लफ्ज़
मेरे हाथों में आपकी हथेलियों के निशाँ

वही परवाज़ जिनकी उफ़क़ और फ़लक  तुम हो
छोड़ जाते हैं हवाओं पे भी परों के निशाँ

आपको ना-"क़ुबूल" करके हर दफा खोया
तलाश लेते हैं फिर आपके कदमों के निशाँ

खार  - thorn, उफ़क़ - horizon, फ़लक - sky

Wednesday, August 27, 2014

आईना

ख़त्म दिल से बुरे अच्छे की हर पहचान हो  जाए
ये दिल वो फिर से पहले की तरह नादान हो जाए

तुझे कश्ती में क्यूँ  ढूँढूँ, अगर मझधार भी तू है
ये दोनों एक ही हैं, मुझको ये पहचान हो जाए

सभी का ही भला मैं मांगता तो हूँ मगर तब तक
किसी के हाथ न जब तक मेरा नुकसान हो जाए

खुदा ने हुस्न जो बख्शा, मुबारक़ है, मगर तब ही
नज़र आने का दिल से ख़त्म जब अरमान हो जाए

कहाँ मुमकिन है कि हर चाह दिल की यूं ही मिट जाए
शहनशाह वो बने जिस पर तेरा एहसान हो जाए

समझ आ जाए मुझको कि ये तय होगा ठहरने से
तो मैं से तू का ये मुश्किल सफ़र आसान हो जाए

बना रखा है कबसे अपने लफ्ज़ों को नक़ाब अपना
मेरा आईना हों ग़ज़लें, मेरी दास्तान हो जाए

तेरे दरबार में खुद ही "क़ुबूल" अपने गुनाह कर ले
चलें पाक अश्क़ और "रोशन" मेरा ईमान हो जाए

Friday, December 06, 2013

सिफ़र

मेरी नज़र पे नज़र-ए-मेहर बनाये रखना
अपने एहसान तसव्वुर में बसाये रखना

मिलेगा या कि नहीं इस से बेसबब होकर 
तुझी से मांगू सिलसिला ये बनाये रखना

हमें बहुत अज़ीज़ है ये दोस्ती तुझसे
तू ही निभा रहा है तू ही निभाये रखना

तू मुस्कुराया था मेरी ही इक शरारत पे 
मेरे लिए मुग़ालता ये बनाये रखना

तेरे सिवा न कोई देता है न लेता है 
सर-ए-बाज़ार भी सिफ़र पे टिकाये रखना

अकल  को दी है जो तासीर दौड़ने की तो
अब इसका रुख भी अपनी सिम्त बनाये रखना 

न गर्ज़ से न फ़र्ज़ से तेरी इबादत हो
मुझे बेसाख्ता सजदों में लगाए रखना

नहीं मुमकिन तेरी रहमत को बयां कर पाना
तू फिर भी ऐसी कोशिशों में लगाए रखना

"क़ुबूल" तो नहीं कर पाया हूँ तुझे अब तक 
तू अपनी महफिलों में फिर भी बिठाये रखना 

फ़ज़ल  - grace, सिफ़र - zero, सिम्त - towards/near, मुग़ालता - illusion


Monday, June 24, 2013

अर्ज़


जब से पहचान हुई तुमसे, तुम कुछ ही बार नज़र आए
पहचान रही न काम आयी, तुम जब जब यार नज़र आए

जब सामने आए हो तो इन नज़रों के सामने ही रहना
वरना क्या ये भी मुमकिन है, मैं चाहूँ और तू दिख जाये?

तू है दरिया-ए-मुहब्बत, तेरा क़तरा-क़तरा मुहब्बत है
पर कोई प्यासा दिखता है, कोई तुझमें बहता दिख जाये

कहते हैं कि हर जंग हुआ करती है अमन की ही खातिर
इसलिए तलाशता हुआ सुकूँ, दिल खुद से ही  लड़ता जाये

कोई ज़ोर नहीं पर अर्ज़ मेरी मैं डरते डरते कहता हूँ
हर सही गलत की उलझन से इस दिल की रिहाई हो जाए

बस वही तमन्नाएँ देना, जो तूने करनी हों "कुबूल"
तेरा न मिलना तय है तो तेरी ख़्वाहिश भी न आए

Tuesday, November 27, 2012

यकीं

मुराद-ए-यकीं सी कोई मुराद नहीं है
पूरा है जो हमेशा कम-ओ-ज़ाद नहीं है

तेरे हर इक पयाम को सजदे ही किये हैं
हर्फों का इल्म है कि नहीं याद नहीं है


जब जब भी ये एहसास मिला है कि तू मिला है
देखा है लबों पे कोई फ़रियाद नहीं है


मुझको बना ग़ुलाम ग़ुलामी के शौक़ का
जो ख्वाहिश-ए-आज़ादी से आज़ाद नहीं है


तेरे ही ये ख्याल है और तर्जुमा तेरा
तेरा ही करम है मेरा इरशाद नहीं है

वो सफ़र अहल-ए-मंज़िल पे हो गया "कुबूल"
कोई तलाश जिसकी तेरे बाद नहीं है

Friday, August 10, 2012

नूर

A lot of images delve in the heart. A handful of them melt and flow into poetry:

जिस पे हो जाए मेहरबाँ बेवजह-ओ-बेखबर 
कायनातों की क़ज़ा अटकी तेरी मुस्कान पर 



"   इक नज़र तूने जो डाली पानियों के शोर पे 
साज़ बन बैठी हैं लहरें तेरा चेहरा चूमकर    "




अक्स तेरे चेहरे का मेरी तबस्सुम हो तो हो 
कैसे हंस पाएगी तेरे बिन बता मेरी नज़र 


आसमां को डोरियों से बाँध के रखते हो अब 
और नज़र भी फेर लो तो ये ज़मीं जाए किधर 

बहे सारी उम्र तेरे चेहरे से ऐसे ही नूर 
रोशनाई सी रहें राहें हमारी ता-सफ़र 


 कायनात - world, क़ज़ा - fate, तबस्सुम - smile

Wednesday, May 09, 2012

माज़ी

माज़ी ने फिर मुड़कर देखा, अबके ऐतराज़ नहीं आया,
वो भी गुज़रा हँसते हँसते, मैं भी नाराज़ नहीं आया 

लगता है सालों बाद इन्हें, फिर आंसू कहता हो कोई,
आँखों से रिसते पानी में, ज़िद का रंग आज नहीं आया

मुमकिन है इश्क एक से ही, बाकी हैं गर्ज़-ओ-फ़र्ज़ फक़त,
या प्यार सभी से करने का, मुझको अंदाज़ नहीं आया

अपने ही लफ़्ज़ों को हरदम, ढूँढा तेरी बातों में और 
लगता था मेरे दर ही क्यूँ, ये चारासाज़ नहीं आया

दिन की सो जाने की ख्वाहिश, शब की चाहत थी जगने की,
 कैसे कह दूं कि राहों में, दौर-ए -फ़रियाद नहीं आया 

फिर आज आखिर में याद आया, वो दस्तूर-ए-लफ्ज़-ए-"कुबूल",
जब तक हर पल में न देखा, रम्ज़-ए-इजाज़ नहीं आया 


माज़ी- past, गर्ज़ - selfish motive, चारासाज़  - healer, शब- night, रम्ज़ - secret / understanding, इजाज़ - (God's) benevolence / miracle

Monday, February 13, 2012

इकबाल

हर एक ज़र्रे को रोशन तेरा जमाल करे
किसे ख़बर है कहाँ पर तू क्या कमाल करे


तू हर जगह है मगर फिर भी छुपा रहता है
बशर है खाना-नशीं ख्वाहिश-ए-विसाल करे

मैं ये हर बार देख के भी भूल जाता हूँ
तू वही करता है सभी को जो खुशहाल करे

मार देती है मेरी सोच मुझे हर दफा और
मुझे हर बार जिंदा तेरा इक ख्याल करे

तेरा फ़ज़ल तू नहीं मांगता हिसाब वर्ना
मैं बिक ही जाऊँगा जो तू बस इक सवाल करे

बड़ी ख़ुशी से तूने किया है "कुबूल" मुझे
और एक मैं जो अब भी कोशिश-ए-इकबाल करे


 जमाल- aura, खाना-नशीं - trapped / in darkness/ misguided, ख्वाहिश-ए-विसाल - desire to meet, फ़ज़ल- grace, इकबाल- acceptance

Thursday, January 05, 2012

ख्वाहिश के टुकड़े

कहूं कैसे हुआ मुझको तेरे पास आ के क्या हासिल,
मेरा हर पल है तेरे रूबरू, बतला के क्या हासिल

मेरे मुग़ालते तेरे ही खेलों का नतीजा हैं,
पशेमाँ छोड़ अव्वल, फिर करम फरमा के क्या हासिल

मेरी ख्वाहिश के टुकड़े मुझको खींचें चारसूँ होकर,
तेरी मर्ज़ी है किस जानिब, बता दे तू, कि क्या हासिल

तू मुझसे प्यार करता है, मैं तुझसे प्यार करता हूँ,
तो फिर यूं इम्तिहानों में मुझे बैठा के क्या हासिल

मुझे ऐतबार न आये कि तू अच्छा ही करता है,
तो फिर ये क्यूँ हुआ, वो क्यूँ हुआ, समझा के क्या हासिल

ख़ुशी हो बासबब या बेसबब, दोनों नहीं टिकती,
खुदाई या खुदा को बेवफा ठहरा के क्या हासिल

सबूतों का रहा मोहताज, और बोला यकीं भी है
तो तुझको जानकर, करके "कुबूल", और पा के क्या हासिल


मुग़ालते- Confusions, पशेमाँ- Ashamed, अव्वल- Firstly , चारसूँ - Four directions, जानिब - Direction


 

Thursday, August 11, 2011

सोच

ये दिल क्यूँ सोच में दौड़े यहाँ वहाँ के लिए
मेरे साहिब की सोच सारे ही जहां के लिए

अगर ये गुल खिलें इक दूसरे के खिलने से
और एहतियाज क्या हसीन गुलिस्ताँ के लिए

तेरे ख्यालों में सबसे अज़ीम होगा ये
हर इंसान यूँही सोचे हर इन्सां के लिए
 
मेरे कदमों को हो ख्याल फ़क़त चलने का
सोच राहों की छोड़नी है रहनुमां के लिए

"कुबूल" हो सके मुझे हद-ए-मीनार-ए-मसीद 
 न आरज़ू हो किसी और आसमां के लिए

एहतियाज- requirement, अज़ीम- highest, हद-ए-मीनार-ए-मसीद - Zenith of the minaret in the mosque


Monday, August 08, 2011

हाल-ए-दिल

यूं तो मुरशद पे ही कुर्बान जुबां होती है
दिल-ए-ग़मगीन तेरी चाह कहाँ होती है

कभी निगाह में बस हसरतों का मजमा और
कभी तस्लीम तकाज़े का निशाँ होती है
 
तू भी होता है बेसुकून सा तन्हाई में
मेरी भी बंदगी शिकवों में बयाँ होती है

 है ये मालूम कि खालिक है निगेहबां फिर भी
 तेरी निगाह-ए-पाक-ओ-हया कहाँ होती है

ख्याल रहता है फैलाने का दामन को पर
सुराख कितने है ये होश कहाँ होती है

अमीर दुनिया में होने की चाह जिसको है
बिके इस दर पे वो औकात कहाँ होती है

तुझे सुनाया हाल-ए-दिल तुझे "कुबूल" भी हो
तेरे एहसास की हर सांस अज़ाँ होती है

 मजमा- gathering, तस्लीम- Salutation / respect, तकाज़े- demands, निगेहबां- is watching, निगाह-ए-पाक-ओ-हया - pious vision and dignity, अज़ाँ - call for prayer.

Thursday, May 19, 2011

मुन्तज़िर

तसव्वुर पर सिलवटें हैं, तेरे आने का सपना भी
हैं कबसे मुन्तज़िर आंखें, तो लाजिम है बरसना भी

समेटी याद बस तब तक, तेरी क़ुरबत मिली जब तक
बड़ा मुश्किल हुआ तबसे, कोई पल साथ रखना भी

मेरी आँखें भी अब मेरी तरह  ही होश में हैं जो
तेरा दीदार चलता है, नहीं रुकता तरसना भी

अभी तक मेरे दामन में तेरे आंसू सलामत हैं
है इक बारिश में नामुमकिन लहू के दाग बहना भी

तेरे चेहरे को हाथों की लकीरों में तलाशा बस
अजब कि जानता है ये दुआ के लफ्ज़ बुनना भी

ये अच्छा है खुदा पे हक फ़क़त ऐतबार का ही है
कि क्यूँकर आजमायें जब, नहीं आसाँ समझना भी

Friday, December 24, 2010

ईमान

ज़रा मुश्किल है दिल की बात का यूं तो जुबां होना
नहीं मुमकिन वफ़ा की सारी रस्मों का गुमां होना

नहीं दिल को थी कोई आरज़ू दुनिया की दौलत की
दिखी तेरी ख़ुशी बिकती, गिला था दाम न होना

जो है ऐतबार तो फिर यूं सबूतों की तलब क्यूँ हो
अगर है भी तो लाज़िम है, बखौफ़-ओ-पशेमां होना

कभी सुनते हैं उल्फत नाम है बेगर्ज़  होने का
कभी कहते हैं नादानी है कोई गर्ज़ न होना

कहे कोई क्यूँ मुझसे अपने सब वादे भुलाने को
हैं ये सारे सितम बेहतर, या खुद से बे-ईमां होना ?

नहीं ज्यादा समझ राह-ए-मुहब्बत की तो क्या कीजे
नहीं रुकता तेरी सूरत पे दिल का आशना होना

 लाज़िम - Necessary , बखौफ़-ओ-पशेमां - Fearful and ashamed, बेगर्ज़ - selfless, गर्ज़- selfish motive

Monday, December 20, 2010

Fir

फिर से  उन्ही अदाओं की ज़ंजीर मुझे दे
फिर तेरे फ़ज़ल  से बनी तासीर मुझे दे

हँसते हुए थी तूने कभी मुझपे अयाँ की
मखमल में रखी मेरी वो तकदीर मुझे दे

क्या खो गया कि इस क़दर मस्कीन मैं हुआ
कुछ तो सुराग मेरे अहल-ए-पीर मुझे दे


आँखों को बंद करने की सब कोशिशें नाकाम
क्या जाने कब दीदार मेरी हीर मुझे दे

बे-इख्तियार न हो मेरा हाथ फिर कभी
ना कभी ऐसी दानिश-ए-शरीर मुझे दे

ये नज़र आरज़ू में आज फिर से है उठी
इस आरज़ू को बना के तस्वीर मुझे दे

कि फ़क़त तख़ल्लुस  में न मौजूद हो खुदा
कर पाऊं सब कुबूल वो ज़मीर मुझे दे


----------
फ़ज़ल - Good attribute / goodwill,  तासीर - Nature, अयाँ - Bestow, मस्कीन - Poor, अहल-ए-पीर - Highest prophet, बे-इख्तियार - Out of control, दानिश-ए-शरीर - Disobedient wisdom, फ़क़त - only, तख़ल्लुस  - Pen name.

Friday, January 08, 2010

आहिस्ता

है भीड़ ख्यालों की लेकिन लहर-ए-अल्फाज़ आहिस्ता है
दुनिया का शोर-ओ-गुल है पर मेरी आवाज़ आहिस्ता है

क्यूँ सूरज धीरे जलता है, क्यूँ रात पिघलती है धीरे
क्यूँ बारिश में भीगी बूंदों की भी रफ़्तार आहिस्ता है

परसों के जैसा ही कल था, और आज भी कल के जैसा है
कल तो तेज़ी से गुज़रा था, जाने क्यूँ आज आहिस्ता है

जो चाँद फ़क़त दो हफ्ते में कामिल हो जाया करता था
रुकता बढ़ता, बढ़ता रुकता, चुपचाप बड़ा आहिस्ता है

तेरी आवाजें बहती हैं, मेरे ही घर में रहती हैं
सुनते हैं बुनते हैं ग़ज़लें, दो-चार अश'आर आहिस्ता हैं

दिखता है दिल को जब सुकून, डर भी मिलने आ जाता है
जिसके सदके ये दोनों हैं, तेरी वो बात आहिस्ता है

जब तेरे दर पर है "कुबूल", मेरी आँखों का हर सपना
जगने की क्यूँ बेचैनी है, क्यूँ लगती रात आहिस्ता है

लहर-ए-अल्फाज़ - Flow of words, अश'आर - (plural of ) couplet

Tuesday, July 07, 2009

ibaadat

Some lines from a great poem by Bhupendra Bekal ji, which have made an impression on my heart, though I am miles away from following them.

बेरंग की रंगीन मस्ती में खोकर
हवस-भय-खुशामद से निर्लेप होकर

ख्यालों में मुर्शद के एहसां पिरोकर
इबादत है झुक जाना मशकूर होकर

........

'बेकल' इबादत में शर्तें हैं वर्जित
इबादत है कर देना खुद को समर्पित

(Worship is losing oneself in the colorful trance of this colorless Almighty; going beyond lust, greed, fear and flattery; Always keeping in mind the grace of God; worship is bowing to Him with gratitude. 
"Bekal", worship is not on conditions, worship is to surrender oneself fully.)


I pray to Almighty that I may be able to follow these in my life.

Monday, June 08, 2009

जब

ढलेगी रोशनी शमा-ए-दिल आजाद होगी
इसी बादल के साये में वो मुलाक़ात होगी

हमारी हसरतों को पर लगेंगे उल्फत के
हर एक आरजू मचलने को बेताब होगी

हवा जो छू के जायेगी तेरे रुखसारों को
मेरी हलकी सरगोशी भी उसके साथ होगी

ये चाँद घोलेगा मदहोशी स्याह पानी में
फिर आधे आधे से लफ्जों में अपनी बात होगी

तेरी हंसी का नूर बिखरेगा हर जानिब
इसी नशे में तेरी रूह भी शादाब होगी

शब-ए-मक़सूद की तलाश मुकम्मल होगी
मेरी जुबां से इक नयी ग़ज़ल ईजाद होगी

मैं सोच लूँगा अपनी आखिरी तमन्ना भी
भला दिल को भी धड़कने की कुछ याद होगी?

"कुबूल" है मुझे भी इंतज़ार थोडा सा
की खुदा ने सुनी किसी की तो फरियाद होगी

रुखसार- Cheek; जानिब - side, towards; शादाब - Fresh / Rejuvenate.

बेकरार

Life at IIT. Life with learnings, fun, dreams, freedom. And precious moments.
Learnt some things there. Left much more undiscovered.
Some lines I scribbled during a train journey from Kharagpur to Kolkata during last days of my college. I think it was 10th May 2008. Finally publishing it.
First couplet is from a song by Gulzar Saahab.

रुके रुके से क़दम, रुक के बार बार चले,
करार ले के तेरे दर से बेकरार चले।

कि कल तक इसी पल के इंतज़ार में थे हम,
अब आज चाह है कि और इंतज़ार चले।

इसी उम्मीद से कि कल ज़रा बेहतर होगा,
हम आज भर को सुकूँ मांगने उधार चले।

मेरा हर एक ख्वाब ज़िन्दगी में उतरेगा
यही खुशफहमी चले और ये खुमार चले

मैं एक रात मांगता हूँ तुझसे ऐ मौला,
उन्ही ख़्वाबों का सिलसिला फ़िर एक बार चले।

Monday, May 11, 2009

Email communication skills

An email from my HR regarding a course on communication skills (esp email communication):

Dear All,
We are pleased to invite you for the "TalkShop" training scheduled for the 18th & 19th of March, 2009.
The focus of this session is to help the participants improve their communication skills and the session covers a range of communication models that include email communication, presentation skills, managing telephonic conversations, writing technical reports and specifications....

Program Details :-

Program : "Talkshop"

Date : 14th & 15th May 09
Venue : 0C001, OTP, #3 Bannerghatta Road, Bangalore, Karnataka 560029
Time : 9:30 am to 5:30 pm
----------------------------------------------------
Another email from the HR 3 minutes later:

Dear All,
We are pleased to invite you for the "TalkShop" training scheduled for the 18th & 19th of May, 2009.
The focus of this session is to help the participants improve their communication skills and the session covers a range of communication models that include email communication, presentation skills, managing telephonic conversations, writing technical reports and specifications....

Program Details :-

Program : "Talkshop"

Date : 14th & 15th May 09
Venue : 0C001, OTP, #3 Bannerghatta Road, Bangalore, Karnataka 560029
Time : 9:30 am to 5:30 pm

And then another:

The sender would like to recall the message, " Invite Mail -"TalkShop" -14th & 15th May 09".

Though the bullet (two of them in fact) had left the gun already, Another:

The sender would like to recall the message, " Invite Mail -"TalkShop" -14th & 15th May 09".


Finally, the last step (in showing what we will not do after attending this course ):

Hi All,
There is a typo in my previous mail. Request you to kindly ignore the same.
The program details are as follows:
Program : "Talkshop"
Date : 14th & 15th May 09
Venue : 0C001, OTP, #3 Bannerghatta Road, Bangalore, Karnataka 560029
Time : 9:30 am to 5:30 pm
Regret the inconvinience caused.


Life has its own way of making some things more interesting. Sometimes with just a play of copy-paste :)

Thursday, May 01, 2008

विसाल

आंखों में नींद बची है कम, पर रात अभी भी बाकी है,
गीले सूखे अश्कों के संग, हर ख्वाब अभी भी बाकी है

ये आते जाते पेड़ भी अब, थोड़े से रुसवा लगते हैं,
पर इन क़दमों का रुकने से, इनकार अभी भी बाकी है

ये पागल दिल मेरा यूँ तो, कहता है रात मुख्तसर है,
और ख़ुद ही खुश होता है कि, माहताब अभी भी बाकी है

खाली राहों में कुछ साये, अब भी कहते से मिलते हैं,
कि इसी ज़िंदगी में अपना, कुछ साथ अभी भी बाकी है

खिड़की से अंधियारी सूनी, गलियों का मंज़र दिखता है,
इस दिल में नूर के क़दमों की आवाज़ अभी भी बाकी है

मेरी राहों के जैसा ही, ये शहर बियाबां लगता है,
बस उस दर पे इक जलता हुआ, चिराग अभी भी बाकी है

शब के जाने की आहट है, और शोर धडकनों का भी है,
साया सा उनका दिखता है, दीदार अभी भी बाकी है ।


मुख्तसर - Short lived, माहताब - moon, नूर - light, बियाबां - (dark, lonely) forest, सोया - doorstep, शब - night

विसाल - Union

Saturday, April 05, 2008

हक

One year later, again a treat at the same place, I again write something on friendship, something for my friends. Friendship for me is defined by the title of the poem. There are a million more thoughts in mind, and hopefully they will find escape in the next one. Here's me hoping. :)

हक

थोड़ा थोड़ा तेरा प्यार, अब भी सपने में मिलता है,
बीते लम्हों का गुलज़ार, अब भी सपने में मिलता है

राहें जुदा जुदा हैं बेशक, चाहत भी इकसार नही, पर
तेरे मेरे दिल का तार, अब भी सपने में मिलता है

धूप और छाँव अलग है अपनी, और बिछड़े से किस्से हैं, पर
इक सी रात सुकूं इकसार, अब भी सपने में मिलता है

उम्मीदों ख़्वाबों के जुगनू, मुझको बेशक भरमाते हैं,
हर तफरीह को तू तैयार, अब भी सपने में मिलता है

शायद वक्त हुआ है बिछड़े, और तुझको मैं याद नही हूँ,
मुझको तो तेरा दीदार, अब भी सपने में मिलता है

सबसे पक्की यारी शायद ऐसी ही जिद्दी होती है,
नहीं मिलूंगा कहकर यार, अब भी सपने में मिलता है

तेरी खुशियों की शहनाई, अब भी ख्वाब सजाती मेरे,
तुझपर मेरा हक वो यार, अब भी सपने में मिलता है ।

Tuesday, March 04, 2008

तलाश

किताबों में अपनी ग़ज़ल ढूँढता था,
आवाजों में अपनी असल ढूँढता था

वो खुश था या गमगीं, पता चला कुछ,
बस एहसास का एक पल ढूँढता था

कभी इसकी महफिल, कभी उसकी महफिल,
हस्ती का सबब आजकल ढूँढता था

तस्वीर कोई, कोई थी पहचां,
जो बदले कभी , शक्ल ढूँढता था

क्या मिलती उसे कुछ मदद दानिशों से,
जो ख़ुद जैसा एक पागल ढूँढता था

मुलाक़ात का पल भी कैसा अजब था,
महल में खड़ा वो महल ढूँढता था

"कुबूल" उसने करके ही पाया सुकूँ वो,
जिसे वो फज़ल-दर-फज़ल ढूँढता था





हस्ती - existence, सबब - reason / cause, दानिश - wisdom, फज़ल - attribute / quality (good)

Friday, February 01, 2008

मुलाक़ात

दिखने लगा छुपा हुआ वो प्यार भी हल्का सा,
आंखो में छलक आया है इक़रार भी हल्का सा

बस ख़त्म हो चला था, जितना था सब्र मन में,
बहुत हुआ लगा ये इंतज़ार भी हल्का सा

तेरे नूर का यही रंग, तेरे अक्स को तलब था,
चढ़ने को रूह पर मेरी, तैयार भी हल्का सा

सोचा था कि इतना बेहतरीन होगा ये पल,
खुद पर से हट रह है इख्तियार भी हल्का सा

ख़ुशी कहूं, या क्या कहूं, एहसास को मैं अपने,
लगता है मेरे ख़्वाबों के ये पार भी हल्का सा

पर ये तो बस आगाज़ ही हुआ है उड़ने का,
होने का ख़त्म, हो इंतज़ार भी हल्का सा

हर रोज़ नए आसमां मिलें एहसासों को,
बुझ गयी प्यास, लगे इक बार भी हल्का सा

"कुबूल" हो दुआ मेरी बस एक मेरे मौला,
मांगू नहीं, तुझे जो नागवार भी हल्का सा



Monday, August 20, 2007

ख़्वाब



पलकों की सेज से उठा मेरा इक ख़्वाब वो चला,
दिखी है शायद उसको अपनी राह वो चला

रहता था, सजा करता था इन पलकों में कबसे,
है मुझसे छुड़ाकर के आज हाथ वो चला

उससे कहा मैंने जो, नहीं राह ये तेरी,
कह के कि आज तो है इन्कलाब वो चला

बिखरा जो ग़र, टुकड़े, मेरे दिल को ही चुभेंगे,
शायद उसे नही है ये एहसास वो चला

दिखता नही जो उसको हकीकत का कांच है,
मंज़िल का सोच अपनी कब्रगाह वो चला

टुकड़े हुआ, मुझको चुभा, मुझी को वो बोला,
मरता ना मैं, होता तू मेरे साथ जो चला

मैंने कहा मुझे तो मेरी राह है पता,
मरता नही कभी खुदा के साथ जो चला |



Thursday, April 19, 2007

सब रंग एक संग

This poem is for my wing-mates, we are like the colours in the colour-box, in which all different colours reside, and come together to create beauty. This poem includes some incidents that got imprinted in my memory. Love you unconditionally and hamesha, my bhailog !


सब रंग एक संग


हम साथ हैं तो ज़िंदगी की हर ख़ुशी मिली
यारों मेरे सौगात मुझको ये हसीं मिली

साहिल की रेत में जो था वो ढूँढता सीपी
इक रात उसको आसमान की परी मिली

रोशन मीनारें जिनको था बस दूर से देखा
उनकी भी इस नाचीज़ को शागिर्दगी मिली

लहरों में हाथ थाम कर खडे हुए थे जब
सुबह मुझे वो जिन्दगी की बेहतरीं मिली

मुश्किल था हाँ बेशक जो वक़्त दर्द में गया
रफ़्तार उसको पर तुम्हारे साथ से मिली

दिल को जो राह दिल से हो तो फासलों से क्या
बस कहना मुझे तेरी चिट्ठी नही मिली





Thursday, April 05, 2007

शुक्रिया


शुक्रिया


जब कभी फिर तेरी हंसी का सिलसिला होगा,
खुदा ने बख्शा इस ग़ज़ल का ही सिला होगा ।

ये मेरे ख्वाब उतर जाएंगे तस्वीर मे तब,
कि जब वो आखिरी आँसू तेरा ढला होगा ।

तेरी खुशी से कोई और भी है खुश होता,
तेरी खुशी को जब इसका पता चला होगा ।

मेरी किस्मत मे तू नहीं न सही शुक्र तो है,
तेरा नसीब भी जिस दिन यूँ ही खिला होगा ।


तेरी आवाज़ को सुन पाऊँ खनकती जब फिर,
उस रोज़ फरिश्ता कोई मुझसे मिला होगा ।

मेरी दुआ "कुबूल" की होगी रहबर ने,
मेरी कोशिश को तेरा शुक्रिया मिला होगा ।




Wednesday, November 01, 2006

Ibaadat


Hai aisa nahi ki ye sunta nahi hai,
kabhi kabhi haan par, ye kehta "nahi" hai

zarurat hamari, isey har pata hai,
jo maange agar kuchh, tasalli dili hai

hai lagta hamein, intezar kuchh lamba,
par timing to iski hi sabse sahi hai

jo sochein, hamein chhod sab hai ye soche,
tab bhi soch iski hi sabse badi hai

jo poochhein, ibaadat, karein hum ye kab tak,
ibaadat to har saans se hi judi hai

sada pyaar karna, hai ye hi ibaadat,
namaazein to bas guftagu ki ghadi hain

Tuesday, October 10, 2006

A common among Specials

This poem was written by my younger brother, who has just entered into IIT Roorkee this year, in august end. It beautifully describes the experience of a new IITian.

Here it goes :

Destiny has given me an awakening shower

and the dreams of complexes are over

No superiority , No inferiority

arosen in me a feeling of equality

The qualities have turned into normalities

The casualities have turned into formalities

No more I am in the limelight

rather am shining as one of the stars in night

Deep inside me is a deep desire

trying to built again a strong empire

But my shadow is wandering like blinds

and I don't know when I will give up against the masterminds

I have forgotten to live alone among crouds

but am learning to be humble among prouds

Gradually time is passing by

and I have realised that I have become

A common among specials

Saturday, September 16, 2006

Do Kaanch ke tukde

Zameen par pade kaanch ke tukde ko na dutkaaro,
shaayad kisi ke aasmaan ka wo taara hoga

dikhta hai jo tumhare jahaan mein karkat saa,
kisi ke jahaan ka kiya roshan usney nazaara hoga

tumhaari zameen par jagah banaane ki koshish ne
kiya taraashney ka kaam usey saara hoga

dekhoge gar uski taraf zaraa gaur se,
uski adni si chamak ka tumhari aankhon mein bhi taara hoga

aur li tumne gar ye chamak har tukde se,
to bhara roshni se tumhara har kinaara hoga

har raah mein tumhaari bikhraa laakh taara hoga,
kyonki aise tukdon se to bhara jahaan saara hoga

aur maana jo har taare ko kaanch ka tukda,
tumhaari band aankhon ko na naseeb wo har sitaara hoga

zindagi galat hogi bas chamak se bachne mein,
kyonki aise tukdon se to bhara jahaan saara hoga.