राह को देखता हूँ राहबर गया जबसे
मुझे मंज़िल पे छोड़कर सफर गया जबसे
जो बेसुरा था, पर हमेशा गुनगुनाता था
बड़ा खामोश हुआ है, शहर गया जबसे
वो जो इक भूत मेरे सर पे चढ़ा रहता था
मेरी भी सांस है बोझल, वो मर गया जबसे
मैं खड़ा सोच रहा हूँ कि क्या ये वो ही था
वो मुझसे आँख चुराकर गुज़र गया जबसे
मैं अपने आप को पहचान नहीं पाता हूँ
मेरी तस्वीर में वो रंग भर गया जबसे
वो नहीं आया है वापस, हर एक चिट्ठी में
बात आने की लिखी है, मगर गया जबसे
वो परिंदा क़फ़स के इंतज़ार में है अब
रात तूफां में नशेमन बिखर गया जबसे
आईना ठीक है तो अक्स के टुकड़े क्यों हैं
मेरा ही हुस्न ये सवाल कर गया मुझसे
मेरे ही जिस्म को मेरा सुकूं क़ुबूल नहीं
और रिसता है लहू, ज़ख़्म भर गया जबसे
1 comment:
__/\__ dnjee
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