Wednesday, May 09, 2012

माज़ी

माज़ी ने फिर मुड़कर देखा, अबके ऐतराज़ नहीं आया,
वो भी गुज़रा हँसते हँसते, मैं भी नाराज़ नहीं आया 

लगता है सालों बाद इन्हें, फिर आंसू कहता हो कोई,
आँखों से रिसते पानी में, ज़िद का रंग आज नहीं आया

मुमकिन है इश्क एक से ही, बाकी हैं गर्ज़-ओ-फ़र्ज़ फक़त,
या प्यार सभी से करने का, मुझको अंदाज़ नहीं आया

अपने ही लफ़्ज़ों को हरदम, ढूँढा तेरी बातों में और 
लगता था मेरे दर ही क्यूँ, ये चारासाज़ नहीं आया

दिन की सो जाने की ख्वाहिश, शब की चाहत थी जगने की,
 कैसे कह दूं कि राहों में, दौर-ए -फ़रियाद नहीं आया 

फिर आज आखिर में याद आया, वो दस्तूर-ए-लफ्ज़-ए-"कुबूल",
जब तक हर पल में न देखा, रम्ज़-ए-इजाज़ नहीं आया 


माज़ी- past, गर्ज़ - selfish motive, चारासाज़  - healer, शब- night, रम्ज़ - secret / understanding, इजाज़ - (God's) benevolence / miracle

1 comment:

Anonymous said...
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