पलकों की सेज से उठा मेरा इक ख़्वाब वो चला,
दिखी है शायद उसको अपनी राह वो चला
रहता था, सजा करता था इन पलकों में कबसे,
है मुझसे छुड़ाकर के आज हाथ वो चला
उससे कहा मैंने जो, नहीं राह ये तेरी,
कह के कि आज तो है इन्कलाब वो चला
बिखरा जो ग़र, टुकड़े, मेरे दिल को ही चुभेंगे,
शायद उसे नही है ये एहसास वो चला
दिखता नही जो उसको हकीकत का कांच है,
मंज़िल का सोच अपनी कब्रगाह वो चला
टुकड़े हुआ, मुझको चुभा, मुझी को वो बोला,
मरता ना मैं, होता तू मेरे साथ जो चला
मैंने कहा मुझे तो मेरी राह है पता,
मरता नही कभी खुदा के साथ जो चला |
2 comments:
awesome.. :)
bahut sahi likha hai pushpaaaa.... too gud :)
the last line was AWESOME !!!
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