Wednesday, October 28, 2015

दीदार

और कैसे अहद-ए-उलफत को निभाना चाहिए
रोज़-ओ-शब दीदार पीकर मुस्कुराना चाहिए

कहने को हम हैं मुरीद और आप हैं मुर्शद मगर
अपने पीछे ही हमें सारा ज़माना चाहिए

आना जाना और बदलना लाज़मी हर शय को है
आप हैं तो क्यों फिर उनसे दिल लगाना चाहिए

सामने रखे हैं मेरे, दोस्ती भी रंज भी
देख ली दीवार, पुल भी आज़माना चाहिए

आपके कदमों से लिपटे ज़र्रे जैसे कह रहे
दर-ब-दर भटके हैं अब पक्का ठिकाना चाहिए

हाथ न ख़ंजर किसी का क़त्ल करते हैं कभी
बस ज़हन से सोच का ख़ंजर छुड़ाना चाहिए

मुफ्त की शोहरत से न मग़रूर हो जाएँ कहीं
आप की महफ़िल में आकर मुंह छुपाना चाहिए

हर किसी को अपने ऊपर की फ़लक़ ऊंची लगी
दूसरों को कम समझने का बहाना चाहिए

कर दो गुस्ताख़ी को माफ़ और अर्ज़ को कर लो "क़ुबूल"
फूल बनकर ये चमन हमको सजाना चाहिए


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